हिन्दू धर्म ग्रन्थों
के अनुसार हिन्दू समाज को चार वर्णों में बांटा गया है जिसमें ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र हैं। इन वर्णों को उनके कार्य के आधार
पर विभाजित किया गया है। जिसमें ब्राम्हण का कार्य भगवान की पूजा अर्चना करना व कई सारे
धार्मिक कार्य करना, क्षत्रिय
का कार्य
रक्षा करना, वैश्य
का कार्य व्यापार करना एवं शूद्र का कार्य निचले स्तर के कार्य करना एवं अन्य वर्णों
की सेवा करना आदि सम्मिलित
है।
वैसे तो छुआछूत केवल भारत में
ही नहीं अपितु अन्य देशों में भी देखने को मिलती थी बस फर्क इतना था कि वहां वर्ण
की बजाय रंग-भेज के आधार पर भेदभाव होता था। जिसे दूर करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था
की गई जो कि सरकारी एवं गैर-सरकारी दोनों क्षेत्रों में दिया जाने लगा। और कुछ इसी
तरह भारत में भी छूआछूत को दूर करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई जो कि सरकारी
क्षेत्र में दी जाने लगी।
मनुस्मृति में इन चार वर्णों
के बारे में संक्षिप्त में दिया गया है जिसमें ब्राम्हण वर्ग को सर्वश्रेष्ठ समझा
गया है और शूद्र वर्ग को सबसे निचला स्थान दिया गया है। जो अधिकार ब्राम्हण एवं अन्य
वर्णों को प्राप्त थे वे शूद्र वर्ण को प्राप्त नहीं थे। इस वर्ण को तिरस्कार की
दृष्टि से देखा जाने लगा। और आगे चलकर ऐसे सारे कार्य मैला ढोना, झाड़ू लगाना, मृत पशु के शव उठाना आदि कार्यों का जिम्मा शूद्र वर्ग के लोगों द्वारा किया
जाने लगा। बाहरी आक्रमण या सशक्त विद्रोह में किसी भी शूद्र को भाग लेने नहीं दिया
जाता था। क्योंकि युध्द करना केवल क्षत्रियों के क्षेत्राधिकार में था। उन्हे किसी
भी प्रकार की अनुमति नहीं थी कि वे अस्त्र-शस्त्र विद्या सीखें और युद्ध करें। युद्ध
में ऐसी भी स्थितियां बनती थी जिसमें सैनिकों की संख्या कम पड़ जाती थी लेकिन इसके
पश्चात् भी उन्हे रणभूमि में उतरने की अनुमति
नहीं थी। फिर चाहे युद्ध में परास्त
ही क्यों न होना पड़े। उन्हे वैश्यों की भांति व्यापार करने की भी अनुमति नहीं
थी। उन्हे अपना जीवन चलाने के लिए निचले स्तर के काम करने पड़ते थे। उन्हे धन सम्पत्ति या स्वर्ण आभूषण रखने
का भी अधिकार नहीं था। वैवाहिक अवसर पर उन्हे घोड़ी पर बैठने का भी अधिकार प्राप्त
नहीं था।
इस वर्ग को मंदिर में जाने की अनुमति भी नहीं थी और न ही पूजा करने की अनुमति थी यदि ये किसी नदी तालाब का पानी पी लें तो
उस तालाब को अशुद्ध माना जाता था। उस
स्थिति में उस तालाब का ब्राम्हणों के द्वारा शुद्धिकरण किया जाता था।
और शूद्र वर्ग को इसका कठोर दण्ड दिया जाता था। जिससे कि वे दुबारा ऐसी गलती
न करें। शूद्र वर्ग की महिलाओं को ऊपरी भाग ढंकने की
अनुमति नहीं थी उन्हे अर्धनग्न अवस्था
में ही चलना पड़ता था और न ही वे किसी भी प्रकार के स्वर्ण आभूषण धारण कर सकती थी।
शूद्र अपने गले या कमर में एक टोकनी टांग कर चलते थे जिसमें वह कचरा डालते व थूकते
थे। उन्हे वेद या धार्मिक ग्रंथ को रखने या पढ़ने का अधिकार भी प्राप्त नहीं था और
न ही वे पाठशाला में जाकर शिक्षा ले सकते थे और अगर पाठशाला जाते भी थे तो उन्हे कक्षा
के भीतर बैठने नहीं दिया जाता था उन्हे बाहर बैठ कर ही शिक्षा लेना पड़ता था सार्वजनिक
तौर पर उन्हे ऐसे कोई भी अधिकार प्राप्त नहीं थे जो कि अन्य वर्णों को। उनका जीवन
भी किसी श्राप से कम नहीं था।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात्
डॉ. आम्बेडकर के प्रयासों के द्वारा आरक्षण जैसे प्रावधान इन वर्गों के लिए किए गए
जो काफी कारगार सिद्ध हुए जो वर्तमान में भी अस्तित्व में है।
वर्तमान में कार्य के आधार
पर वर्ण व्यवस्था का महत्व काफी कम हो गया है एवं लोगों में जात-पात की खाई भी काफी
कम हो गई है लेकिन आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी घटनाएं देखने को मिलती है जो कि
छुआछूत पर ही आधारित होती है एवं रूढ़ीवादी मानसिकता को प्रदर्शित करती हैं जो कि एक
चिंतनीय विषय है।
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